Saturday, February 2, 2013

दूर एक मद्धिम सी रौशनी दिखी थी वो.....

दूर एक मद्धिम सी रौशनी दिखी थी वो
मन ललायित उसे पाने की थी 
अंतर मन आशा और द्वन्द का उद्गम स्थल था 
गौर से देखा तो बड़ी निकृष्ट थी वो 
सत्य को जाना तो मीलों दूर थी वो ।

वो उदास और बेचैन थी फिर भी 
मन में छोटी से आशा दुबकी थी 
आगे देखा तो सीढियों की कतार थी 
प्रफुलित हो सीढियाँ चढ़ती  गयी थी ।

शरीर और मन थक गया था 
पर हाय ! यहाँ तो कोई विश्राम गृह  भी न था 
अपनी सफलता पर आठ-आठ आंसू रोई थी वो ।

फिर एक मद्धिम सी रोशनी दिखी थी वो.....

प्रण किया लौट चली जाउंगी
अब तो राश्ते  का पता भी न था 
फिर उसी उहापोह में जीने लगी थी वो ।

जिंदगी का अंतिम पड़ाव था 
खोने का बड़ा ही गम था 
आशाएं और उन्माद विलुप्त थे 
मन में प्रश्न बार- बार यही थे 

की क्या पाकर  पछताना ही जिंदगी थी वो ???


[अपनी कलम से ]

No comments:

Post a Comment